Thursday, October 23, 2008

Poem : पर्वत से बातचीत

This is my only attempt in life for poem writing. (Read it to discover why I did not try any further :) ). I wrote it in my 8th standard as part of an assignment for a poem called नदी से बातचीत (yeah....you got it right, nothing original about the idea)

कल सांझ को जब मैंने अटल अचल पर्वत को देखा,
तब यूँ ही मैंने उससे पुछा,
"मित्र, तुम तो बड़े भाग्यवान हो,
यूँ अटल हो रह में खड़े हो,
इस धरा का गौरव हो,
हम मानवों को भी सफलता की कून्ज्जी बता दो,
हमारे जीवन को फूलों से भर दो"
यह सुनकर अपनी दृढ़ वाणी में,वह सरोष कहने लगा,
"हे बंधू! क्यूँ तुम इस तरह के प्रश्न पूछते हो?
यूँ ही मुझसे होड़ बांधते हो
यदि तुम्हे तुम्हारा उत्तर चाहिए,
तो एक कड़वी सच्चाई को तुम्हे निगलना होगा
फ़िर भी सुनो,ज़रा अपने अंतर्मन से पूछो,
क्या तुमने स्वयं को कृत्रिम दीवारों में कैद कर नही रखा?
तुम प्रकृति के आशीष को लेने से कतराते हो,
आंधी तूफानों को झेलने से घबराते हो
यदि आज मुझे देखकर तुम्हारा मन लालायित हुआ है,
तो कृत्रिम दीवारे तोड़ो,
धरती को अपना घर समझो, अम्बर को छत मानो
दृढ़ निश्चय करके मैदान में डटे रहो
जीना है तो स्वयं के लिए नही,दूसरो के लिए जीयो
मित्र! सफलता की रह तो है कांटो की, इसमे फूल तुम न ढूंढो
कांटो को सहो, पत्थरो को झेलो,
कभी न रुको, कभी न झुको, बस चलते चले जाओ
यदि सचमुच तुम्हे महान बनना है,तो दूसरो को क्षुद्र न समझो
यह सब करने पर ही तुम्हे सफलता मिलेगी,
और इस तरह के प्रश्न पूछने की ज़रूरत न पड़ेगी|"

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